Friday, July 2, 2021

मनुष्य की चेतना कभी पीछे अन्य योनियों में जन्म नहीं लेती हैं

मनुष्य की चेतना कभी पीछे अन्य योनियों में जन्म नहीं लेती हैं हमेशा गुणों में सत रज तम के हिसाब से मनुष्य में ही जन्म लेती हैं
“मूढ़ योनि की बड़ी गलत परिभाषाएं हुई हैं। अनेक गीता के व्याख्याकारों ने मूढ़ योनि का अर्थ लिया है कि वह पशुओं में चला जाता है। वह गलत है। क्योंकि लौटकर नीचे गिरने का कोई उपाय जगत में नहीं है। कोई मनुष्य की स्थिति में एक बार आ जाए, तो वापस पशु नहीं हो सकता। क्योंकि वापस पशु होने का तो मतलब यह हुआ कि मनुष्यता तक पहुंचने की जो कमाई थी, उसका क्या होगा।
चेतना कभी पीछे नहीं लौटती रुक सकती है। आगे न जाए, यह हो सकता है। अवरुद्ध हो जाए, लेकिन पीछे नहीं लौट सकती। एक बच्चा अगर दूसरी कक्षा में आ गया, तो उसको पहली कक्षा में वापस भेजने का कोई उपाय नहीं वह दूसरी में पचास साल रुके, तो रुक सकता है, कोई हर्जा नहीं लेकिन उसको पहली में वापस करने की कोई व्यवस्था नहीं है। क्योंकि वह पहली पार कर ही चुका और जो हम जान चुके, उसे न जाना नहीं किया जा सकता जो हम कर चुके, उस अनकिया नहीं किया जा सकता।
इसलिए मेरी दृष्टि में जिन-जिन व्याख्याओं में कहा गया है कि तमस से भरा हुआ व्यक्ति पशुओं की योनि में चला जाता है, ये व्याख्याएं गलत हैं और जिन्होंने की हैं, वे केवल शब्दों के आधार पर व्याख्याएं कर रहे हैं।
मूढ़ योनि का मतलब है कि मनुष्यों में ही, जैसे कर्म से भरे हुए लोग हैं, सत्व से भरे हुए लोग हैं, वैसे ही तमस से भरे हुए मूढ़ लोग हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पांच प्रतिशत बच्चे मूढ़ योनि में हैं, जिनको हम ईडियट कहें, इम्बेसाइल कहें। पांच प्रतिशत बच्चे न कोई बुद्धि है, न कुछ करने का भाव है। अपने जीवन की रक्षा तक की सामर्थ्य नहीं है। जो मूढ़ बच्चा है, घर में आग लग जाए, तो भागकर बाहर नहीं जाएगा। उसको यह भी पता नहीं है कि मुझे अपने को बचाना है। इतना भी कर्म पैदा नहीं होता। यह योनि मूढ़ योनि है। जिसको मनोवैज्ञानिक इंडियोसि कहते हैं, उसको ही कृष्ण ने मूढ़ कहा है।
मूढ़ का मतलब पशु नहीं है। अगर पशु ही कहना होता, तो पशु ही कह दिया होता, मूढ़ कहने की कोई जरूरत न थी। पशु मूढ़ नहीं होते, सिर्फ मनुष्य हो मूढ़ हो सकता है। पशु मूर्ख नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूर्ख हो सकता है।
जो सत्व प्रधान हैं, वे भी पांच प्रतिशत होते हैं। यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है। मनोविज्ञान के आधार पर पांच प्रतिशत लोग टैलेंटेड होते हैं, प्रतिभाशाली होते हैं। वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, दार्शनिक है, संत हैं। पांच प्रतिशत लोग एक छोर पर प्रतिभासंपन्न होते हैं। और ठीक पांच प्रतिशत लोग दूसरे छोर पर मूढ़ होते हैं। बाकी नब्बे प्रतिशत लोग बीच में होते हैं। ये मध्यवृत्तीय लोग हैं, मध्यवर्गीय लोग हैं।
ये जो मध्यवर्गीय लोग हैं, इनमें मूढ़ता भी सम्मिलित है, बुद्धिमत्ता भी सम्मिलित है। ये दोनों का मिश्रण हैं।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्थिति करीब-करीब ऐसी है, जैसा शिव डमरू होता है, उसको हम उलटा कर लें शिव का डमरू बीच में तो पतला होता है, दोनों तरफ बड़ा होता है। बीच में संकरा हो जाता है। इसको हम उलटा कर लें। दोनों तरफ संकरा और बीच में चौड़ा तो दोनों तरफ संकरे छोरों पर पांच-पांच प्रतिशत लोग हैं।
वे जो पांच प्रतिशत लोग हैं, वे सत्व के कारण इस जगत में प्रतिभा से भरे हुए पैदा होते हैं। प्रतिभासंपन्न होना ही स्वर्ग में होना है। प्रतिभा सुख है। सुख की सूक्ष्म अनुभूति और पांच प्रतिशत लोग मूढ़ होते हैं, जिनको कुछ भी होश नहीं, जिनको खाने-पीने का भी होश नहीं, जिनको उठने-बैठने का भी पता नहीं। बाकी लोग बीच में हैं, नब्बे प्रतिशत लोग |
ठीक मध्य में बड़े से बड़ा वर्ग हैं। करीब पचास प्रतिशत लोग ठीक मध्य में हैं। ये पचास प्रतिशत लोग दोनों तरफ यात्रा कर सकते हैं। चाहें तो कभी भी मूढ़ हो सकते हैं, और चाहें तो कभी भी प्रतिभा अर्जित कर सकते हैं और यह निर्धारण मरने के क्षण में हो जाता है कि आप कैसे मर रहे हैं। तम से भरे हुए मर रहे हैं, रज से भरे हुए मर रहे हैं, सत्व से भरे हुए मर रहे हैं। बीच के जो लोग हैं, ये रजो-प्रधान हैं। तमोप्रधान एक छोर पर हैं। सत्व प्रधान दूसरे छोर पर हैं।
इस पूरी व्यवस्था को बदलने का एक ही उपाय है कि आप अपने भीतर गुणों की तारतम्यता को बदल लें और यह कोई मरते क्षण के लिए मत रुके रहें कि मरते वक्त एकदम से सत्व प्रधान हो जाएंगे। कोई कभी नहीं हो सकता।
मरते वक्त कुछ किया नहीं जा सकता। आपने जो जीवनभर में किया है, उसको ही इकट्ठा किया जा सकता है। जो कमाया है, वही और आपके हाथ में फिर बदलाहट नहीं है। क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है, आप कुछ कर नहीं सकते।
अनेक लोग सोचते हैं, मरते वक्त राम का नाम ले लेंगे। जिन्होंने जीवनभर नहीं लिया राम का नाम मरते वक्त उनके गले से वह शब्द न उठेगा। उनके होठ सूख जाएंगे। उनके हृदय में कहीं छाया भी राम की न मिलेगी। उस वक्त तो वही शब्द उठेगा, जो उन्होंने जिंदगीभर सोचा है। कोई धन सोच रहा था, तो धन उठ सकता है। नोट दिखाई पड़ सकते हैं। तिजोरियां दिखाई पड़ सकती हैं। राम नहीं दिखाई पड़ेंगे।
वही जीवन के अंत में प्रकट होता है, जिसे हमने जीवनभर सम्हाला, बुलाया, निमंत्रण दिया है। इसलिए कल को प्रतीक्षा मत करें और मृत्यु की राह मत देखें जीवन ही जगह है, जहां हम अपनी मृत्यु को भी कमाते हैं।
ध्यान रहे, मृत्यु कमाई जाती है, मुफ्त नहीं मिलती। जितना आप कमाते हैं, वैसी मृत्यु हो जाती है। और जैसी मृत्यु, फिर वैसा नया जन्म हो जाता है। मृत्यु बड़ी सार्थक घटना है। क्योंकि नया जन्म उस पर निर्भर होगा। वह बीज है। नया जन्म, उससे वृक्ष बनेगा। जीवन को सत्व की तरफ ले चलें, तो आप स्वर्ग की तरफ
अनिवार्य रूप से चलते जा रहे हैं। स्वर्ग एक मनोदशा है। आप कहां हैं, यह सवाल नहीं है, कि कहीं आकाश में स्वर्ग है, वहां आप हैं। स्वर्ग एवं नर्क एक मनोदशा है। आप जहां भी हों, सत्व से भरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में है
गीता दर्शन -ओशो
दिव्य जीवन जागृति मिशन अध्यक्ष

रामनरेश माधव

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good morning sabhi ko

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एक बार एक महात्मा मस्त होकर भजन गाते

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एक रास्ते से गुजर रहे थे। थोड़ी दूर चलकर उन्होंने देखा, कि पीछे एक सांड़ उनके लगा चला आ रहा है। शायद उनकी मस्ती से प्रभावित हो गया, या उनके डोलने से महात्मा घबड़ाये मस्ती ऊपरी ऊपरी थी, कोई दिल की तो बात न थी। वे तो ऐसे ही भक्तों की तलाश में मस्त हो रहे थे कि कोई मिल जाये। मिल गया सांड़ ! उन्होंने डर के मारे रफ्तार बढ़ा दी। थोड़ी दूर पहुंचने पर फिर पलटकर देखा- अब तो उनकी मस्ती वगैरह सब खो गई–सांड़ बड़ी तेजी से पीछे चला आ रहा है। अब तो उन्होंने भागना शुरू कर दिया। सांड़ भी पीछे भागने लगा सांड़ भी खूब था, बड़ा भक्त! शायद महात्मा की तलाश में था कि गुरु की खोज कर रहा था। खोजी था। अब तो महात्मा बहुत भयभीत हो गये और अपनी जान बचाने के उद्देश्य से एक ऊंचे

मनुष्य की चेतना कभी पीछे अन्य योनियों में जन्म नहीं लेती हैं

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“मूढ़ योनि की बड़ी गलत परिभाषाएं हुई हैं। अनेक गीता के व्याख्याकारों ने मूढ़ योनि का अर्थ लिया है कि वह पशुओं में चला जाता है। वह गलत है। क्योंकि लौटकर नीचे गिरने का कोई उपाय जगत में नहीं है। कोई मनुष्य की स्थिति में एक बार आ जाए, तो वापस पशु नहीं हो सकता। क्योंकि वापस पशु होने का तो मतलब यह हुआ कि मनुष्यता तक पहुंचने की जो कमाई थी, उसका क्या होगा। चेतना कभी पीछे नहीं लौटती रुक सकती है। आगे न जाए, यह हो सकता है। अवरुद्ध हो जाए, लेकिन पीछे नहीं लौट सकती। एक बच्चा अगर दूसरी कक्षा में आ गया, तो उसको पहली कक्षा में वापस भेजने का कोई उपाय नहीं वह दूसरी में पचास साल रुके, तो रुक सकता है, कोई हर्जा नहीं लेकिन उसको पहली में वापस करने की कोई व्यवस्था नहीं है। क्योंकि वह पहली पार कर ही चुका और जो हम जान चुके, उसे न जाना नहीं किया जा सकता जो हम कर चुके, उस अनकिया नहीं किया जा सकता। इसलिए मेरी दृष्टि में जिन-जिन व्याख्याओं में कहा गया है कि तमस से भरा हुआ व्यक्ति पशुओं की योनि में चला जाता है, ये व्याख्याएं गलत हैं और जिन्होंने की हैं, वे केवल शब्दों के आधार पर व्याख्याएं कर रहे हैं। मूढ़ योनि का मतलब है कि मनुष्यों में ही, जैसे कर्म से भरे हुए लोग हैं, सत्व से भरे हुए लोग हैं, वैसे ही तमस से भरे हुए मूढ़ लोग हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पांच प्रतिशत बच्चे मूढ़ योनि में हैं, जिनको हम ईडियट कहें, इम्बेसाइल कहें। पांच प्रतिशत बच्चे न कोई बुद्धि है, न कुछ करने का भाव है। अपने जीवन की रक्षा तक की सामर्थ्य नहीं है। जो मूढ़ बच्चा है, घर में आग लग जाए, तो भागकर बाहर नहीं जाएगा। उसको यह भी पता नहीं है कि मुझे अपने को बचाना है। इतना भी कर्म पैदा नहीं होता। यह योनि मूढ़ योनि है। जिसको मनोवैज्ञानिक इंडियोसि कहते हैं, उसको ही कृष्ण ने मूढ़ कहा है। मूढ़ का मतलब पशु नहीं है। अगर पशु ही कहना होता, तो पशु ही कह दिया होता, मूढ़ कहने की कोई जरूरत न थी। पशु मूढ़ नहीं होते, सिर्फ मनुष्य हो मूढ़ हो सकता है। पशु मूर्ख नहीं होते, सिर्फ मनुष्य ही मूर्ख हो सकता है। जो सत्व प्रधान हैं, वे भी पांच प्रतिशत होते हैं। यह बड़ी आश्चर्यजनक बात है। मनोविज्ञान के आधार पर पांच प्रतिशत लोग टैलेंटेड होते हैं, प्रतिभाशाली होते हैं। वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, दार्शनिक है, संत हैं। पांच प्रतिशत लोग एक छोर पर प्रतिभासंपन्न होते हैं। और ठीक पांच प्रतिशत लोग दूसरे छोर पर मूढ़ होते हैं। बाकी नब्बे प्रतिशत लोग बीच में होते हैं। ये मध्यवृत्तीय लोग हैं, मध्यवर्गीय लोग हैं। ये जो मध्यवर्गीय लोग हैं, इनमें मूढ़ता भी सम्मिलित है, बुद्धिमत्ता भी सम्मिलित है। ये दोनों का मिश्रण हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि स्थिति करीब-करीब ऐसी है, जैसा शिव डमरू होता है, उसको हम उलटा कर लें शिव का डमरू बीच में तो पतला होता है, दोनों तरफ बड़ा होता है। बीच में संकरा हो जाता है। इसको हम उलटा कर लें। दोनों तरफ संकरा और बीच में चौड़ा तो दोनों तरफ संकरे छोरों पर पांच-पांच प्रतिशत लोग हैं। वे जो पांच प्रतिशत लोग हैं, वे सत्व के कारण इस जगत में प्रतिभा से भरे हुए पैदा होते हैं। प्रतिभासंपन्न होना ही स्वर्ग में होना है। प्रतिभा सुख है। सुख की सूक्ष्म अनुभूति और पांच प्रतिशत लोग मूढ़ होते हैं, जिनको कुछ भी होश नहीं, जिनको खाने-पीने का भी होश नहीं, जिनको उठने-बैठने का भी पता नहीं। बाकी लोग बीच में हैं, नब्बे प्रतिशत लोग | ठीक मध्य में बड़े से बड़ा वर्ग हैं। करीब पचास प्रतिशत लोग ठीक मध्य में हैं। ये पचास प्रतिशत लोग दोनों तरफ यात्रा कर सकते हैं। चाहें तो कभी भी मूढ़ हो सकते हैं, और चाहें तो कभी भी प्रतिभा अर्जित कर सकते हैं और यह निर्धारण मरने के क्षण में हो जाता है कि आप कैसे मर रहे हैं। तम से भरे हुए मर रहे हैं, रज से भरे हुए मर रहे हैं, सत्व से भरे हुए मर रहे हैं। बीच के जो लोग हैं, ये रजो-प्रधान हैं। तमोप्रधान एक छोर पर हैं। सत्व प्रधान दूसरे छोर पर हैं। इस पूरी व्यवस्था को बदलने का एक ही उपाय है कि आप अपने भीतर गुणों की तारतम्यता को बदल लें और यह कोई मरते क्षण के लिए मत रुके रहें कि मरते वक्त एकदम से सत्व प्रधान हो जाएंगे। कोई कभी नहीं हो सकता। मरते वक्त कुछ किया नहीं जा सकता। आपने जो जीवनभर में किया है, उसको ही इकट्ठा किया जा सकता है। जो कमाया है, वही और आपके हाथ में फिर बदलाहट नहीं है। क्योंकि जीवन क्षीण हो रहा है, आप कुछ कर नहीं सकते। अनेक लोग सोचते हैं, मरते वक्त राम का नाम ले लेंगे। जिन्होंने जीवनभर नहीं लिया राम का नाम मरते वक्त उनके गले से वह शब्द न उठेगा। उनके होठ सूख जाएंगे। उनके हृदय में कहीं छाया भी राम की न मिलेगी। उस वक्त तो वही शब्द उठेगा, जो उन्होंने जिंदगीभर सोचा है। कोई धन सोच रहा था, तो धन उठ सकता है। नोट दिखाई पड़ सकते हैं। तिजोरियां दिखाई पड़ सकती हैं। राम नहीं दिखाई पड़ेंगे। वही जीवन के अंत में प्रकट होता है, जिसे हमने जीवनभर सम्हाला, बुलाया, निमंत्रण दिया है। इसलिए कल को प्रतीक्षा मत करें और मृत्यु की राह मत देखें जीवन ही जगह है, जहां हम अपनी मृत्यु को भी कमाते हैं। ध्यान रहे, मृत्यु कमाई जाती है, मुफ्त नहीं मिलती। जितना आप कमाते हैं, वैसी मृत्यु हो जाती है। और जैसी मृत्यु, फिर वैसा नया जन्म हो जाता है। मृत्यु बड़ी सार्थक घटना है। क्योंकि नया जन्म उस पर निर्भर होगा। वह बीज है। नया जन्म, उससे वृक्ष बनेगा। जीवन को सत्व की तरफ ले चलें, तो आप स्वर्ग की तरफ अनिवार्य रूप से चलते जा रहे हैं। स्वर्ग एक मनोदशा है। आप कहां हैं, यह सवाल नहीं है, कि कहीं आकाश में स्वर्ग है, वहां आप हैं। स्वर्ग एवं नर्क एक मनोदशा है। आप जहां भी हों, सत्व से भरा हुआ व्यक्ति स्वर्ग में है गीता दर्शन -ओशो दिव्य जीवन जागृति मिशन अध्यक्ष रामनरेश माधव

महात्मा के पीछे सांड क्यों लगा था

client-6.png मैंने सुना, एक बार एक महात्मा मस्त होकर भजन गाते हुए एक रास्ते से गुजर रहे थे। थोड़ी दूर चलकर उन्होंने देखा, कि पीछे एक सांड़ उनके लगा चला आ रहा है। शायद उनकी मस्ती से प्रभावित हो गया, या उनके डोलने से महात्मा घबड़ाये मस्ती ऊपरी ऊपरी थी, कोई दिल की तो बात न थी। वे तो ऐसे ही भक्तों की तलाश में मस्त हो रहे थे कि कोई मिल जाये। मिल गया सांड़ ! उन्होंने डर के मारे रफ्तार बढ़ा दी। थोड़ी दूर पहुंचने पर फिर पलटकर देखा- अब तो उनकी मस्ती वगैरह सब खो गई–सांड़ बड़ी तेजी से पीछे चला आ रहा है। अब तो उन्होंने भागना शुरू कर दिया। सांड़ भी

मैंने सुना, एक बार एक महात्मा मस्त होकर भजन गाते हुए एक रास्ते से गुजर रहे थे। थोड़ी दूर चलकर उन्होंने देखा, कि पीछे एक सांड़ उनके लगा चला आ रहा है। शायद उनकी मस्ती से प्रभावित हो गया, या उनके डोलने से महात्मा घबड़ाये मस्ती ऊपरी ऊपरी थी, कोई दिल की तो बात न थी। वे तो ऐसे ही भक्तों की तलाश में मस्त हो रहे थे कि कोई मिल जाये। मिल गया सांड़ ! उन्होंने डर के मारे रफ्तार बढ़ा दी। थोड़ी दूर पहुंचने पर फिर पलटकर देखा- अब तो उनकी मस्ती वगैरह सब खो गई–सांड़ बड़ी तेजी से पीछे चला आ रहा है। अब तो उन्होंने भागना शुरू कर दिया। सांड़ भी